बेआबरू
हुए हम, दिलों के जज़्बात
निभाने में
गर
सब्र करो तुम, देंगे कुछ और हरजाने
में ।
नाकाम
मुहब्बत का हर किस्सा भुला बैठे थे
उम्मीद
-ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे
थे ।
मुझे
पूछना है कि, आशिक़ी क्या ऐसे
करोगे ?
मालूम
तो था, तुम हाले-दिल बताने
से डरोगे ।
बरखुरदार, गर दिल्लगी ऐसी नहीं होती, तो
जमाने
में यहाँ, हर राँझे की एक हीर
होती ।
चलो
अब ज़ख़्मों से, मुझे एक तजुर्बा भी आया
न
हुआ अपना कभी मैं, पर तेरा साथ निभाया ।
मीआद
है ! कभी मुह से निवाला छिन जाता है
ये
इश्क़ है, हर कीमत को मोल मिल
जाता है ।
-कुमार
कमलेश
(चित्र सौजन्य- इन्टरनेट)