रविवार, 5 नवंबर 2017

उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे....


बेआबरू हुए हम, दिलों के जज़्बात निभाने में
गर सब्र करो तुम, देंगे कुछ और हरजाने में ।

नाकाम मुहब्बत का हर किस्सा भुला बैठे थे
उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे ।


मुझे पूछना है कि, आशिक़ी क्या ऐसे करोगे ?
मालूम तो था, तुम हाले-दिल बताने से डरोगे ।

बरखुरदार, गर दिल्लगी ऐसी नहीं होती, तो
जमाने में यहाँ, हर राँझे की एक हीर होती ।

चलो अब ज़ख़्मों से, मुझे एक तजुर्बा भी आया
न हुआ अपना कभी मैं, पर तेरा साथ निभाया ।  

मीआद है ! कभी मुह से निवाला छिन जाता है
ये इश्क़ है, हर कीमत को मोल मिल जाता है ।


-कुमार कमलेश 

(चित्र सौजन्य- इन्टरनेट)

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