गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

तन से मिलकर, मन का मनोरथ
बिखर जाने को शून्य में, बेकरार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का, इन्तजार है ।

कर निषेध, चाहत चपल फिर
उमँग यूँ की, ओज का संचार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

अर्द्ध-निद्रा टूट जाए, तंद्रा का त्याग कर
तिमिर सा तल्लीन क्यूँ, सब्र का दीदार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।



तरुण विटप को फिक्र, तनिक क्या ?
सब अनित्य है, शाख का उद्-गार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

यथार्थ कीर्ति निज अंतःकरण की
प्रखर राहों की बहार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

हो प्रशस्त नित नूतन डगर
रहें उत्कर्ष  पर, ना कभी अपकर्ष हो
वर सकें, इच्छित लक्ष्य को भी
यह......, प्रसिद्धियों का वर्ष हो !

-कुमार कमलेश

(चित्र सौजन्य - इन्टरनेट)

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