रविवार, 5 नवंबर 2017

उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे....


बेआबरू हुए हम, दिलों के जज़्बात निभाने में
गर सब्र करो तुम, देंगे कुछ और हरजाने में ।

नाकाम मुहब्बत का हर किस्सा भुला बैठे थे
उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे ।


मुझे पूछना है कि, आशिक़ी क्या ऐसे करोगे ?
मालूम तो था, तुम हाले-दिल बताने से डरोगे ।

बरखुरदार, गर दिल्लगी ऐसी नहीं होती, तो
जमाने में यहाँ, हर राँझे की एक हीर होती ।

चलो अब ज़ख़्मों से, मुझे एक तजुर्बा भी आया
न हुआ अपना कभी मैं, पर तेरा साथ निभाया ।  

मीआद है ! कभी मुह से निवाला छिन जाता है
ये इश्क़ है, हर कीमत को मोल मिल जाता है ।


-कुमार कमलेश 

(चित्र सौजन्य- इन्टरनेट)

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

जाने दो मुझे कोई आराम ना दो...


किसी की मजबूरियों को, यूँ बेबसी का नाम ना दो
तेरे चाहने वालों को, तुम्हें भूलने का पैगाम ना दो ।

वो सब लम्हात सँजोये हैं मैंने, कहीं मन के किसी कोने में
जलवा है तेरी तबस्सुम का अभी, गैरत की कोई शाम ना दो ।


सब रुसवाइयाँ और इश्क़ की दुशवारियाँ, हैं मंज़ूर मुझे
यूँ “जी” को बहलाकर तुम, मुझ-पर वफा का इल्जाम ना दो ।

मैं संजीदा हूँ, यह इन्कार नहीं, कि बस बहुत हुआ ऐ शाकी
लोग कह दें मुझे शराबी अब, ऐसा मय का कोई जाम ना दो ।  

यहाँ न सही तो कहीं और सही, अपने ठिकानों का पता किसे है
राह दिखी, तो मंज़िल भी होगी, जाने दो मुझे कोई आराम ना दो ।  

-कुमार कमलेश 

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

ऐसा दीप जलाना होगा...!

वर्ण-धर्म का तिमिर मिटाकर
हर मन धवल बनाना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

हवस, वहस-पन और पापमय
कर्मों का दहन कराना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

वनिता हो या कांता, तुझको
अब अधिकार जाताना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।



अँधियारा मिट जाए, सीरत से
तब जठरानल, बुझाना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

शहीदों ! की दहलीजों पर भी
कृतज्ञ-शीश ! झुकाना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

समर्थ स्वार्थ से ऊपर हो जब
सहाय्य पथ बनाना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

हैं, धनाढ्य दो-महले रोशन !
पर, पर्ण-कुटी सजाना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

सहज रहें, सप्रेम जियें सब
हर रूठा यार मनाना होगा
ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर
इक, ऐसा दीप जलाना होगा ।

-कुमार कमलेश

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

मेरी आँखों को न देखो ....!

मेरी आँखों को न देखो 
इनमें अश्क़ आ गए हैं, 
जो कल तक थे तुम्हारे 
किसी और को भा गए हैं।  

जिन पर नाज़ था दोस्ती का 
अब बन गए हैं रक़ीब,
दोस्ती पर मुहब्बत के 
बादल छा गए हैं। 



वो गुज़रे दिनों में 
झिझकना तुम्हारा 
एह्सास सब पुराने 
जैसे मुझमें समा गए हैं।  

यरियों की इम्तिहाँ 
मुहब्बत में है 'कमल'
रक़ीबों पर दोस्ती के 
इल्ज़ाम आ गए हैं।  

-कुमार कमलेश 



रविवार, 15 अक्टूबर 2017

गज़ल तब ही पेश-ए-नज़र होती है ....................


वह जब एहसासों, की उमर होती है
नशेमन, कब दिलों का सबर होती है ।

सुना, मुहब्बत का भी एक मुकाम आता है
अफसाने-इश्क़ जब, राह-ए-ख़बर होती है ।



उसके चेहरे को अभी, चाँद नहीं कहा मैंने
उसकी हँसी और भी, हुश्न-ए-लरज़ होती है ।

मिलते-बिछड़ते हैं, पल-पल तरसते हैं
“गज़ल” तब ही, पेश-ए-नज़र होती है ।

गुमशुदा होकर मैं, हर कहानी से था मुत्मईन
हालात-ए-ज़िंदगी, एक प्रौढ़ शजर होती है ।

शायद कोई सुलह हुई थी, हम दोनों के दरमियाँ
सहज मुकम्मल किसी को, कहाँ कबर होती है ?

-कुमार कमलेश


मन की बातें