रविवार, 15 अक्टूबर 2017

गज़ल तब ही पेश-ए-नज़र होती है ....................


वह जब एहसासों, की उमर होती है
नशेमन, कब दिलों का सबर होती है ।

सुना, मुहब्बत का भी एक मुकाम आता है
अफसाने-इश्क़ जब, राह-ए-ख़बर होती है ।



उसके चेहरे को अभी, चाँद नहीं कहा मैंने
उसकी हँसी और भी, हुश्न-ए-लरज़ होती है ।

मिलते-बिछड़ते हैं, पल-पल तरसते हैं
“गज़ल” तब ही, पेश-ए-नज़र होती है ।

गुमशुदा होकर मैं, हर कहानी से था मुत्मईन
हालात-ए-ज़िंदगी, एक प्रौढ़ शजर होती है ।

शायद कोई सुलह हुई थी, हम दोनों के दरमियाँ
सहज मुकम्मल किसी को, कहाँ कबर होती है ?

-कुमार कमलेश


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