सोमवार, 26 फ़रवरी 2018


याद

बैशाख मास की गरम दोपहर 
या ज्येष्ठ माह में तपता आँगन 
सब याद आ रहा है मुझको 
गोद में लेना और आलिंगन। 

काँधों पर बैठकर आपके 
घूमने जाना वो मेले में 
जिद पर मेरी हँसकर फिर 
ले जाना बर्फ गोले के ठेले में । 



सुबह सुबह गुड़ और सत्तू 
अपने साथ खिलाते थे 
साँझ पहर फिर खेतों में 
हम बाँकी समय बिताते थे । 

थोड़ा बड़ा हुआ था जब मैं 
बिलकुल पापा सा हूँ यही कहा था 
काश के दादू तुम आज होते 
तो देख लेते कितना सही कहा था । 

पापा की ही तरह मैंने भी 
सरकारी नौकरी पा ली है 
पर हमारे घर का आँगन 
अब तुम बिन बिल्कुल खाली है । 


-कुमार कमलेश 

(चित्र सौजन्य - इन्टरनेट)



गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

मानस मत: बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह ...

मानस मत: बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह ...: बीती विभावरी अब , जाती रही ............. इक नयी सुबह का इन्तजार है । तन से मिलकर , मन का मनोरथ बिखर जाने को शून्य में , बेकरार ह...

बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

तन से मिलकर, मन का मनोरथ
बिखर जाने को शून्य में, बेकरार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का, इन्तजार है ।

कर निषेध, चाहत चपल फिर
उमँग यूँ की, ओज का संचार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

अर्द्ध-निद्रा टूट जाए, तंद्रा का त्याग कर
तिमिर सा तल्लीन क्यूँ, सब्र का दीदार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।



तरुण विटप को फिक्र, तनिक क्या ?
सब अनित्य है, शाख का उद्-गार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

यथार्थ कीर्ति निज अंतःकरण की
प्रखर राहों की बहार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।

हो प्रशस्त नित नूतन डगर
रहें उत्कर्ष  पर, ना कभी अपकर्ष हो
वर सकें, इच्छित लक्ष्य को भी
यह......, प्रसिद्धियों का वर्ष हो !

-कुमार कमलेश

(चित्र सौजन्य - इन्टरनेट)

रविवार, 5 नवंबर 2017

उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे....


बेआबरू हुए हम, दिलों के जज़्बात निभाने में
गर सब्र करो तुम, देंगे कुछ और हरजाने में ।

नाकाम मुहब्बत का हर किस्सा भुला बैठे थे
उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे ।


मुझे पूछना है कि, आशिक़ी क्या ऐसे करोगे ?
मालूम तो था, तुम हाले-दिल बताने से डरोगे ।

बरखुरदार, गर दिल्लगी ऐसी नहीं होती, तो
जमाने में यहाँ, हर राँझे की एक हीर होती ।

चलो अब ज़ख़्मों से, मुझे एक तजुर्बा भी आया
न हुआ अपना कभी मैं, पर तेरा साथ निभाया ।  

मीआद है ! कभी मुह से निवाला छिन जाता है
ये इश्क़ है, हर कीमत को मोल मिल जाता है ।


-कुमार कमलेश 

(चित्र सौजन्य- इन्टरनेट)

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

जाने दो मुझे कोई आराम ना दो...


किसी की मजबूरियों को, यूँ बेबसी का नाम ना दो
तेरे चाहने वालों को, तुम्हें भूलने का पैगाम ना दो ।

वो सब लम्हात सँजोये हैं मैंने, कहीं मन के किसी कोने में
जलवा है तेरी तबस्सुम का अभी, गैरत की कोई शाम ना दो ।


सब रुसवाइयाँ और इश्क़ की दुशवारियाँ, हैं मंज़ूर मुझे
यूँ “जी” को बहलाकर तुम, मुझ-पर वफा का इल्जाम ना दो ।

मैं संजीदा हूँ, यह इन्कार नहीं, कि बस बहुत हुआ ऐ शाकी
लोग कह दें मुझे शराबी अब, ऐसा मय का कोई जाम ना दो ।  

यहाँ न सही तो कहीं और सही, अपने ठिकानों का पता किसे है
राह दिखी, तो मंज़िल भी होगी, जाने दो मुझे कोई आराम ना दो ।  

-कुमार कमलेश 

मन की बातें