मानस मत
शनिवार, 30 मार्च 2024
सोमवार, 26 फ़रवरी 2018
याद
बैशाख मास की गरम दोपहर
या ज्येष्ठ माह में तपता आँगन
सब याद आ रहा है मुझको
गोद में लेना और आलिंगन।
काँधों पर बैठकर आपके
घूमने जाना वो मेले में
जिद पर मेरी हँसकर फिर
ले जाना बर्फ गोले के ठेले में ।
सुबह सुबह गुड़ और सत्तू
अपने साथ खिलाते थे
साँझ पहर फिर खेतों में
हम बाँकी समय बिताते थे ।
थोड़ा बड़ा हुआ था जब मैं
बिलकुल पापा सा हूँ यही कहा था
काश के दादू तुम आज होते
तो देख लेते कितना सही कहा था ।
पापा की ही तरह मैंने भी
सरकारी नौकरी पा ली है
पर हमारे घर का आँगन
अब तुम बिन बिल्कुल खाली है ।
-कुमार कमलेश
(चित्र सौजन्य - इन्टरनेट)
गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018
मानस मत: बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह ...
मानस मत: बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह ...: बीती विभावरी अब , जाती रही ............. इक नयी सुबह का इन्तजार है । तन से मिलकर , मन का मनोरथ बिखर जाने को शून्य में , बेकरार ह...
बीती विभावरी अब, जाती रही.............इक नयी सुबह का इन्तजार है ।
तन से मिलकर, मन
का मनोरथ
बिखर जाने को शून्य में, बेकरार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का, इन्तजार है ।
कर निषेध,
चाहत चपल फिर
उमँग यूँ की,
ओज का संचार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।
अर्द्ध-निद्रा टूट जाए, तंद्रा का त्याग कर
तिमिर सा तल्लीन क्यूँ, सब्र का दीदार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।
तरुण विटप को फिक्र, तनिक क्या ?
सब अनित्य है,
शाख का उद्-गार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।
यथार्थ कीर्ति निज अंतःकरण की
प्रखर राहों की बहार है,
बीती विभावरी अब, जाती रही
इक नयी सुबह का इन्तजार है ।
हो प्रशस्त नित नूतन डगर
रहें उत्कर्ष पर, ना कभी अपकर्ष हो
वर सकें,
इच्छित लक्ष्य को भी
यह......, प्रसिद्धियों का वर्ष हो !
-कुमार कमलेश
(चित्र सौजन्य - इन्टरनेट)
(चित्र सौजन्य - इन्टरनेट)
रविवार, 5 नवंबर 2017
उम्मीद -ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे थे....
बेआबरू
हुए हम, दिलों के जज़्बात
निभाने में
गर
सब्र करो तुम, देंगे कुछ और हरजाने
में ।
नाकाम
मुहब्बत का हर किस्सा भुला बैठे थे
उम्मीद
-ए- रहनुमाई, जो तुमसे लगा बैठे
थे ।
मुझे
पूछना है कि, आशिक़ी क्या ऐसे
करोगे ?
मालूम
तो था, तुम हाले-दिल बताने
से डरोगे ।
बरखुरदार, गर दिल्लगी ऐसी नहीं होती, तो
जमाने
में यहाँ, हर राँझे की एक हीर
होती ।
चलो
अब ज़ख़्मों से, मुझे एक तजुर्बा भी आया
न
हुआ अपना कभी मैं, पर तेरा साथ निभाया ।
मीआद
है ! कभी मुह से निवाला छिन जाता है
ये
इश्क़ है, हर कीमत को मोल मिल
जाता है ।
-कुमार
कमलेश
(चित्र सौजन्य- इन्टरनेट)
शनिवार, 28 अक्टूबर 2017
जाने दो मुझे कोई आराम ना दो...
किसी
की मजबूरियों को, यूँ बेबसी का नाम ना
दो
तेरे
चाहने वालों को, तुम्हें भूलने का पैगाम
ना दो ।
वो
सब लम्हात सँजोये हैं मैंने, कहीं मन के किसी कोने में
जलवा
है तेरी तबस्सुम का अभी, गैरत की कोई शाम ना दो
।
सब
रुसवाइयाँ और इश्क़ की दुशवारियाँ, हैं मंज़ूर मुझे
यूँ
“जी” को बहलाकर तुम, मुझ-पर वफा का इल्जाम
ना दो ।
मैं
संजीदा हूँ, यह इन्कार नहीं, कि बस बहुत हुआ ऐ ‘शाकी’
लोग
कह दें मुझे शराबी अब, ऐसा ‘मय’ का कोई ‘जाम’ ना दो ।
यहाँ
न सही तो कहीं और सही, अपने ठिकानों का पता
किसे है
राह
दिखी, तो मंज़िल भी होगी, जाने दो मुझे कोई आराम
ना दो ।
-कुमार कमलेश
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वर्ण-धर्म का तिमिर मिटाकर हर मन धवल बनाना होगा ज्योतिर्मय हो मनुज धरा पर इक , ऐसा दीप जलाना होगा । हवस , वहस-पन और पापमय कर्...
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बीती विभावरी अब , जाती रही ............. इक नयी सुबह का इन्तजार है । तन से मिलकर , मन का मनोरथ बिखर जाने को शून्य में , बेकरार ह...